एक प्रसिद्ध, विश्वसनीय स्रोत का चयन करें जिससे जानवरों को खरीदा जा सके, एक जो स्वस्थ स्टॉक की आपूर्ति कर सकता है, स्वाभाविक रूप से जोरदार और एक विशिष्ट उद्देश्य के लिए विकसित। नए पशुओं को मुख्य झुण्ड में लाने से पहले रोग की निगरानी की जानी चाहिए।
साफ पानी और चारा आपूर्ति सहित अच्छी स्वच्छता।
प्रत्येक झुंड या झुंड के लिए सटीक टीकाकरण कार्यक्रम।
रोग के संकेतों के लिए अक्सर पशुओं का निरीक्षण करें, और यदि कोई रोग समस्या विकसित होती है, तो एक प्रारंभिक, विश्वसनीय निदान प्राप्त करें और उस विशिष्ट रोग के लिए सर्वोत्तम उपचार, नियंत्रण और उन्मूलन उपायों को लागू करें।
सभी मरे हुए जानवरों को जलाकर, गहरा गाड़ कर या निपटान गड्ढे में फेंक दें।
झुंड या झुंड के स्वास्थ्य के संबंध में अच्छे रिकॉर्ड बनाए रखें। इनमें टीकाकरण का इतिहास, बीमारी की समस्याएं और दवाएं शामिल होनी चाहिए।
निगरानी और नियंत्रण के उपाय
रोग निगरानी नए संक्रमणों की पहचान और मौजूदा में परिवर्तन की अनुमति देता है। इसमें पशुधन मालिकों, ग्राम पशु चिकित्सा कर्मचारियों, जिला और प्रांतीय पशु चिकित्सा अधिकारियों द्वारा रोग रिपोर्टिंग और नमूना प्रस्तुत करना शामिल है। बीमारी के प्रकोप से निपटने के लिए इस्तेमाल की जाने वाली विधि प्रकोप की गंभीरता पर निर्भर करती है। किसी बीमारी के फैलने की स्थिति में संक्रामक वायरस को नियंत्रित करने और मिटाने के प्रभावी उपायों के लिए सभी पशुओं का सटीक स्थान आवश्यक है। जानवरों की आवाजाही पर प्रतिबंध लगाने के साथ-साथ संगरोध और चरम मामलों में, वध की आवश्यकता हो सकती है। चित्र 1 और 2 ऐसी तस्वीरें हैं जो पशुधन रोग की रोकथाम और नियंत्रण के समग्र दृष्टिकोण को दर्शाती हैं।
पशुधन रोगों पर जलवायु परिवर्तन का प्रमुख प्रभाव वेक्टर जनित रोगों पर पड़ा है। बढ़ते तापमान ने वेक्टर आबादी के कूलर क्षेत्रों में विस्तार का समर्थन किया है। इस तरह के ठंडे क्षेत्र या तो उच्च ऊंचाई वाले सिस्टम हो सकते हैं (उदाहरण के लिए, पशुधन टिक-जनित रोग) या अधिक समशीतोष्ण क्षेत्र (उदाहरण के लिए, उत्तरी यूरोप में ब्लूटोंग रोग का प्रकोप)। वर्षा के पैटर्न में परिवर्तन गीले वर्षों के दौरान रोगवाहकों के विस्तार को भी प्रभावित कर सकता है और बड़े प्रकोपों को जन्म दे सकता है। जलवायु परिवर्तन भी पशुधन के वितरण में परिवर्तन के माध्यम से अप्रत्यक्ष रूप से रोग वितरण को प्रभावित कर सकते हैं। पशुधन रोग नियंत्रण में सुधार इसलिए जलवायु परिवर्तन अनुकूलन के लिए एक प्रभावी तकनीक है।
आपके मवेशी किस समस्या से पीड़ित हैं:
Mastifis
थनैला (Mastifis) / मेस्टइटिस:-
थनैला में दूध वाले पशुओं को लेवे (Udduer)में जीवाणुओं जैसे स्ट्रेपटीकीक्स/- स्तेफलोकोक्स या कोलिफोरम के कारण सोज्स आ जाती है तथा लेषा सख्त हो जाता दूध में विकार पैदा हो जाता है।
बचाव:-
दूध निकालने से पहले व बाद में थनों को किसी एंटीसेप्टिक सोलुशन से धोना चाहिए और दूध निकालने के समय लेवे को साफ़ और सूखा रखना चाहिए।
दूध की सही प्रकार निकालना चाहिए जल्दबाजी नहीं करनी चाहिए।
दुग्ध के बर्तनों की साफ़ सुथरा रखना चाहिए। और रोड़ में सफाई रखनी चाहिए।
पशु को मिनरल मिक्चर जिसमें कैल्शियम, वीतामिन-ई, ए, ज़ीक इत्यादि ही देना चाहिए। रोग होने पर सही उपचार करवाना चाहिए।
गलाघोंटू
लक्षण के साथ ही इलाज न शुरू होने पर एक-दो दिन में पशु मर जाता है। इसमें मौत की दर 80 फीसदी से अधिक है। शुरुआत तेज बुखार (105-107 डिग्री) से होती है। पीड़ित पशु के मुंह से ढेर सारा लार निकलता है। गर्दन में सूजन के कारण सांस लेने के दौरान घर्र-घर्र की आवाज आती है और अंतत: 12-24 घंटे में मौत हो जाती है। रोग से मरे पशु को गढ्डे में दफनाएं। खुले में फेंकने से संक्रमित बैक्टीरिया पानी के साथ फैलकर रोग के प्रकोप का दायरा बढ़ा देता है।
रोग के लक्षण:-
इस रोग में पशु को अचानक तेज बुखार हो जाता है एवं पशु कांपने लगता है। रोगी पशु सुस्त हो जाता है तथा खाना-पीना कम कर देता है। पशु की आंखें लाल हो जाती हैं। पशु को पीडा होती है और श्वास लेने में कठिनाई होती है। श्वास में घर्रघर्र की आवाज आती है। पशु के पेट में दर्द होता है, वह जमीन पर गिर जाता है और उसके मुंह से लार भी गिरने लगती है।
पशुधन रोग प्रबंधन ?
Reviewed by F Kisaan
on
जून 07, 2023
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